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पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को,
:चले राम, सीता भी उनके, पीछे चलीं गहन वन को।
उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि "तुम कहाँ?"
:विनत वदन से उत्तर पाया—"तुम मेरे सर्वस्व जहाँ॥"
"क्या ही स्वच्छ चाँदनी कर्तव्य यही है यहहै क्या ही निस्तब्ध निशाभाई?" लक्ष्मण ने सिर झुका लिया,है स्वच्छ-सुमंद गंध वह:"आर्य,आपके प्रति इन जन ने, कब कब क्या कर्तव्य किया?"निरानंद "प्यार किया है कौन दिशा?बंद नहीं अब भी चलते हैंनियति-नटी के कार्य-कलापतुमने केवल!" सीता यह कह मुसकाईं,पर कितने एकान्त भाव से:किन्तु राम की उज्जवल आँखें,कितने शांत और चुपचाप।सफल सीप-सी भर आईं॥
पंचवटी की छाया में है,सुन्दर पर्ण -कुटीर बना।बना,:जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर,धीर वीर निर्भीक मना।निर्भीकमना,जाग रहा यह कौन धनुर्धर,जब कि भुवन भर सोता है।है?:भोगी कुसुमायुध योगी -सा,बना दृष्टिगत होता है।है॥
किस व्रत में है व्रती वीर यह,निद्रा का यों त्याग किये।किये,राज्यभोग :राजभोग्य के योग्य विपिन में,बैठा आज विराग लिये।बना हुआ है प्रहरी जिसका,उस कुटीर में क्या धन है।है,:जिसकी रक्षा में रत इसका,तन है, मन है, जीवन है।है!
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
:आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
:मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-
है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
:रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
:शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।
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