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<poem>
क़दमों में भी थकान थी घर भी करीब था
पर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था

निकले अगर तो चाँद दरीचे में रुक भी जाए
इस शहर-ए-बे-चिराग़ में किसका नसीब था

आंधी ने उन रुतों को भी बेताज कर दिया
जिनका कभी हुमा-सा परिंदा नसीब था

कुछ अपने आप से ही उसे कशमकश न था
मुझमें भी कोई शख्स उसी का रक़ीब था

पूछा किसी ने मोल तो हैरान रह गया
अपनी निगाह में कोई कितना गरीब था

मक़तल से आनेवाली हवा को भी कब मिला
ऐसा कोई दरीचा कि जो बेसलीब था
</poem>
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