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पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को,:चले राम, सीता भी उनके, पीछे चलीं गहन वन को।उनके पीछे भी लक्ष्मण थे,कहा राम ने कि ‘‘तुम "तुम कहाँ ?’’":विनत वदन से उत्तर पाया—‘‘तुम "तुम मेरे सर्वस्व जहाँ।’’जहाँ॥"
सीता बोलीं कि ‘‘ये "ये पिता की, आज्ञा से सब छोड़ चले,:पर देवर, तुम त्यागी बनकर,क्यों घर से मुँह मोड़ चले ?’’"उत्तर मिला कि ‘‘आर्य्ये, "आर्य्ये, बरबस, बना न दो मुझको त्यागी,:आर्य-चरण-सेवा में समझो, मुझको भी अपना भागी।।’’भागी॥"
किस व्रत में है बिखेर देती वसुंधराव्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,मोती सबके सोने पर:राजभोग्य के योग्य विपिन में,बैठा आज विराग लिये।रवि बटोर लेता बना हुआ है उनकोसदा सवेरा होने पर।और विराम-दायिनी अपनीसंध्या को दे जाता प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,शून्य-श्याम तनु जिससे उसकानया रूप छलकाता है।:जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
:है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
:पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!
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