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14:56, 30 जनवरी 2010
'''{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मुकेश जैन |संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<poem>मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है'''है।
मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं बच्चा ख़ुद को नंगा देखकर ख़ुश होता है.
बच्चा खुद न-जाने-हुए फलसफ़े को नंगा देखकर खुश होता है. ढोते ढेरों लोग रोज़ मरते हैं। लोगों की आँखों में झाँको तो न-जाना-सा फलसफ़ा एक खौफ़ की मांनिंद भीतर उतर जाता है। जहाँ बच्चों की आँखों की नग्नता अँकुराती है।
न-जाने-अख़बार पढ़ते हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग<br /> रोज़ मरते हैं. लोगों की आँखों में झाँको<br /> अचानक कविता पढ़ना पढ़े तो नएक बैचेनी-जाना-सा फलसफ़ा एक खौफ़ की<br /> सी होती है। मांनिंद भीतर उतर जाता है. जहाँ बच्चों<br /> यहीं से दुनिया के फलसफ़े का सिरा की आँखों की नग्नता अँकुराती है. शुरु होता है।
अखबार पढ़ते हुए अचानक कविता<br /> प्रिया की तरह नहीं आती है।पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी-सी होती है.<br /> तग़ादा करने आए बनिए की तरह यहीं से दुनियाँ के फलसफ़े का सिरा<br /> शुरु होता है. एहसास कराती है।
कविता प्रिया की तरह नहीं आती है.<br />
तग़ादा करने आये बनिया की तरह<br />
एहसास कराती है.
'''रचनाकाल''': 20/जनवरी/1996
</poem>
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