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Kavita Kosh से
इसी सोच में बैठा हूँ मैं
खीझ-खीझ उठता हूँ मैं<br /> उस पर, जिसने<br /> पहली चप्पल बनाई होगी,<br />यदि नहीं बनाता,<br /> तो यह दिन नहीं देखना पड़ता<br />
मुझको, मेरी सारी चिन्ता चप्पल है
नंगे पैरों कैसे चलूं<br /> चलूँ मेरी भी तो कोई इज़्ज़त है<br />
अब क्या होगा
अब खरीदनी ही होगी<br /> चप्पल एक जोड़ी<br /> कतर-ब्यौत करके खर्चों में,<br /> खर्चे, जो<br /> मेरी इज़्ज़त बरकरार रखते हैं. हैं।
'''रचनाकाल:''' : 22/जून1989</1989poem>