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{{KKCatKavita}}
{{KKCatGeet}}<poem>रुपसि तेरा घन-केश पाश!<br>श्यामल श्यामल कोमल कोमल,<br>लहराता सुरभित केश-पाश!<br><br>
नभगंगा की रजत धार में,<br>धो आई क्या इन्हें रात?<br>कम्पित हैं तेरे सजल अंग,<br>सिहरा सा तन हे सद्यस्नात!<br>भीगी अलकों के छोरों से<br>चूती बूँदे कर विविध लास!<br>रुपसि तेरा घन-केश पाश!<br><br>
सौरभ भीना झीना गीला<br>लिपटा मृदु अंजन सा दुकूल;<br>चल अञ्चल से झर झर झरते <br> पथ में जुगनू के स्वर्ण-फूल;<br>दीपक से देता बार बार<br>तेरा उज्जवल चितवन-विलास!<br>रुपसि तेरा घन-केश पाश!<br><br>
उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है<br>बक-पाँतों का अरविन्द-हार;<br>तेरी निश्वासें छू भू को<br>बन बन जाती मलयज बयार;<br>केकी-रव की नूपुर-ध्वनि सुन<br>जगती जगती की मूक प्यास!<br>रुपसि तेरा घन-केश पाश!<br><br>
इन स्निग्ध लटों से छा दे तन,<br>पुलकित अंगों से भर विशाल;<br>झुक सस्मित शीतल चुम्बन से<br>अंकित कर इसका मृदुल भाल;<br>दुलरा देना बहला देना,<br>यह तेरा शिशु जग है उदास!<br>रुपसि तेरा घन-केश पाश! <br><br/poem>