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{{KKRachna
|रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त
|संग्रह=साकेत / मैथिलीशरण गुप्त
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|पीछे=साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ २
|आगे=साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ ४
|सारणी=साकेत / मैथिलीशरण गुप्त
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<poem>
वेदने, तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
नई किरण छोडी है तूने, तू वह हीर-कनी,
सजग रहूँ मैं, साल हृदय में, ओ प्रिय विशिख-अनी।
ठंडी होगी देह न मेरी, रहे दृगम्बु सनी,
तू ही उष्ण उसे रखेगी मेरी तपन-मनी।
आ, अभाव की एक आत्मजे, और अदृष्ट-जनी।
तेरी ही छाती है सचमुच उपमोचितस्तनी।
अरी वियोग समाधि, अनोखी, तू क्या ठीक ठनी,
अपने को प्रिय को, जगती को देखूँ खिंची-तनी।
मन-सा मानिक मुझे मिला है तुझमें उपल-खनी,
तुझे तभी त्यागूँ जब सजनी, पाऊँ प्राणधनी ॥१॥
निरख सखी ये खंजन आये।<br>फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये।<br>फैला उनके तन का आतप, मन-से सर-सरसाये,<br>घूमे वे इस ओर वहाँ ये यहाँ हंस उड़ छाये।<br>कर के ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुस्काये,<br>फूल उठे हैं कमल, अधर से ये बंधूक सुहाये। <br> स्वागत, स्वागत शरद, भाग्य से मैनें दर्शन पाये,<br>नभ ने मोती वारे लो, ये अश्रु अर्ध्य भर लाये ॥३॥<br><br>
शिशिर, न फिर गिरि वन में।<br>जितना मांगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में।<br>कितना कंपन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में, <br> सखी कह रही, पांडुरता का क्या अभाव आनन में।<br>वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस भाजन में,<br>तो मोती-सा मैं अकिंचना रकखूँ उसको मन में।<br>हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं - अपने इस जीवन में,<br>तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में ॥४॥ <br><br>
यही आता है इस मन में।<br>छोड़ धाम-धन जा कर मैं भी रहूँ उसी वन में।<br>प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर,<br>व्यथा रहे पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर।<br>हर्ष डूबा हो रोदन में,<br>यही आता है इस मन में,<br>बीच बीच में कभी देख लूँ मैं झुरमुट की ओट,<br>जब वे निकल जायँ तब लेटूँ उसी धूल में लोट।<br>रहें रत वे निज साधन में,<br>यही आता है इस मन में।<br>जाती-जाती, गाती-गाती, कह जाऊँ यह बात,<br>धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात। <br> प्रेम की ही जय जीवन में,<br>यही आता है इस मन में ॥५॥ <br><br/poem>