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<poem>
षटरस-व्यंजन तौ रंजन सदा ही करें,
ऊधौ नवनीत हूँ सप्रीति कहूँ पावै हैं ।
कहै रतनाकर बिरद तौ बखानैं सब,
सांची कहौ केते कहि लालन लड़ावै हैं ॥
रतन सिंहासन बिराजि पाकसासन लौं,
जग चहुँ पासनि तो शासन चलावै हैं ।
जाइ जमुना तट पै कोऊ बट छाँह माहिं,
पांसुरी उमाहि कबौं बाँसुरी बजावै हैं ॥36॥
</poem>
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