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गीत मन का दर्द सहलाते नहीं
इस शहर के लोग अब गाते नहीं
आपके घर रौशनी से भर गए हैंमेरी बस्ती के उजाले मर गए हैं आपके बेख़ौफ़ तीखे क़हक़हों सेदेखिए कुछ लोग कितना डर गए हैं बेरुख़ी की हम कि सदियों से यूँ ही नंगे बदन हैंशिकायत क्या करेंजिस्म के अहसासात जैसे मर गए हैंग़लतियों पर दोस्त शरमाते नहीं
लूट कर खेतोम को कुछ चालाक डाकूआज हर उपदेश उनके नाम हैसारी तोहमत मौसमों पर धर गए हैंजो कभी भी पेट भर खाते नहीं
सुख लदा छकड़ों में बस आता ही होगाबन गए मंदिर महंतों के क़िलेगाँव की मीटिंग भक्त मंदिर में में वे कहकर गए हैंशरण पाते नहीं
आपने सुख टाँग रक्खे हैं वहाँ
हाथ मेरे जिस जगह जाते नहीं
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