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|संग्रह=चैती / त्रिलोचन
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कई कई दिनों से पड़ाव पड़ा हुआ है
बादलों का
हिलने का नाम भी नहीं लेते
वर्षा
फुहार, कभी झींसी, कभी झिर्री, कभी रिमझिम
और कभी झर झर झर झर
बिजली चमकती है
चिर्री गिरती है
सड़के धुली धुली हैं
जैसे तेल लगी त्वचा हाथी की
इक्के दुक्के लोग आते जाते हैं
सैलानी दिखाई नहीं देते
दुकानें उदास हैं
बैठे दुकानदार मक्खी मार रहे हैं
काफ़ी हाउस,रेस्त्राँ और होटलों में
चहल पहल पहले की नहीं है
गंगा तट सूना है
गिने चुने स्नानार्थी वही आते हैं
जो यहाँ सदा आते हैं
फूल वाले, पटरी के दुकानदार, भाजी वाले
आज अनुपस्थित हैं
चिड़ियाँ समेटे पंख जहाँ तहाँ बैठी हैं .।</poem>