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इल्तफ़ात समझूँ या बेरुख़ी कहूँ इस को <br>
रह गैइ गई ख़लिश बन कर उसकी कमनिगाही भी<br><br>
याद कर वो दिन जिस दिन तेरी सख़्त्गीरी सख़्तगीरी पर <br>
अश्क भर के उठी थी मेरी बेगुनाही भी <br><br>
शम शमा भी उजाला भी मैं ही अपनी महफ़िल का <br>
मैं ही अपनी मंज़िल का राहबर भी राही भी <br><br>
गुम्बदों से पलटी है अपनी ही सदा "मजरूह" <br>
मस्जिदों में की जाके मैं ने दादख़्वाही भी <br><br>
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