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शंख बजाकर / शांति सुमन

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<poem>
शंख बजाकर बरसे बादल
खेती लहरी है

अँकुरे रेह-रेह में बीहन
मन में खेत टँके
दुःख कोई नहीं कि
पहले हाँसुली-बाँक बिके

सुनती नहीं हवा कछेर की
सचमुच बहरी है ।

चाह रही सुख को मुट्ठी में
बंद कर गाए
दुःख के साये दूर-दूर से
आकर नहीं डराये

पोखर के जल नहीं बनेगी
आशा दुहरी है ।

खेत बंटाई के देते हैं
नहीं रात भर सोने
सपने में सपने आते हैं
घर-विवाह गौने

पाँव रंगे हैं लाल रंग में
खुशियाँ ठहरी हैं ।

</poem>
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