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इस रीछ के बच्चे में था इस नाच का ईजाद ।
 
जब हमने उठा हाथ, कड़ों को जो हिलाया ।
ख़म ठोंक पहलवां की तरह सामने आया ।
लिपटा(१) तो यह कुश्ती का हुनर आन दिखाया ।
वां छोटे बड़े जितने थे उन सबको रिझाया ।
इस ढब से आखाड़े में लड़ा रीछ का बच्चा ।।१०।।
जब कुश्ती की ठहरी तो वहीं सर को जो झाड़ा ।
ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ा(२) ।
गह हमने षछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा ।
एक डेढ़ पहर फिर हुआ(३) कुश्ती का अखाड़ा ।
गर हम भी न हारे, न हटा रीछ का बच्चा ।।११।।
यह दांव दाँव में पेचों में जो कुश्ती में हुई देर ।
यूं यूँ पड़ते रूपे-पैसे कि आंधी में गोया बेर ।
सब नक़द हुए आके सवा लाख रूपे ढेर ।
जो कहता था हर एक से इस तरह से मुंह मुँह फेर ।
‘‘यारो तो लड़ा देखो ज़रा रीछ का बच्चा’’।।१२।।
ऐसा तो न देखा, न सुना रीछा का बच्चा ।।१३।।
 
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