भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
ढाबे पर
झाड़ू लगाते बर्तन मांजतेमाँजते-मांजते माँजते हुआ प्रेम।
वह आकर खड़ा हो जाता
सामने वाली पान की गुमटी पर
रोटी बनाते-बनाते मैं देखती उसकी ओर
तवे पर जलती रोटी करती इशारा
'आना शाम को'
दोपहर को भगाती आती थी शाम
निकलने को ही होती ढाबे से
आ जाता कोई ग्राहक
हम हँसते रहते देर तक फिर मिलने का वायदा करते हुए।
उसी हँसी को ढूंढती ढूँढ़ती हूँ आज भी
जब भी कभी दिखता है कोई ढाबा
हँसी में डूबी शाम आ जाती है याद।
</poem>