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|रचनाकार=ग़ालिब|संग्रह= दीवान-ए-ग़ालिब / ग़ालिब
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिनबहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले ।
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत<ref>क़द</ref> की दराज़ी<ref>ऊँचाई</ref>का
अगर उस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म<ref>बल खाए हुए तुर्रे का बल</ref> का पेच-ओ-ख़म निकले
हुई जिनसे तवक़्क़ो<ref>चाहत</ref> ख़स्तगी<ref>घायलावस्था</ref> की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़े-सितम<ref>अत्याचार की तलवार के घायल</ref> निकले
अगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
ज़रा कर ज़ोर सीने में कि तीरे-पुर-सितम<ref>अत्याचारपूर्ण तीर</ref> निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले
ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो यां भी वही क़ाफ़िर सनम निकले
कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़<ref>उपदेशक</ref>
पर इतना जानते हैं , कल वो जाता था के कि हम निकले।निकले</poem>
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