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चाक की ख़्वाहिश / ग़ालिब

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<poem>
चाक<ref>चीर कर निकलना</ref> की ख़्वाहिश, अगर वहशत ब-उरियानी<ref>नग्नता में</ref> करे
सुबह के मानिन्द ज़ख़्म-ए-दिल गिरेबानी<ref>कमीज़ की गरदन</ref> करे

जल्वे का तेरे वह आ़लम है कि गर कीजे ख़याल
दीदा-ए दिल को ज़ियारत-गाह-ए<ref>हैरानी का मकबरा</ref> हैरानी करे

है शिकस्तन<ref>हार</ref> से भी दिल नौमीद<ref>ना-उम्मीद</ref> या रब कब तलक
आब-गीना<ref>काँच</ref> कोह<ref>पहाड़</ref> पर अ़रज़-ए गिरां<ref>ज्यादा ताकत का दावा</ref>-जानी करे

मै-कदा गर चश्म-ए-मस्त-ए-नाज़<ref>मदभरी आँखे</ref> से पावे शिकसत
मू-ए-शीशा<ref>शीशे पर तरेड़</ref> दीदा-ए-साग़र<ref>प्याले की आँख</ref> की मिज़ग़ानी<ref>पलक बनना</ref> करे

ख़त्त-ए-आ़रिज़<ref>गाल के रोअें</ref> से लिखा है, ज़ुल्फ़ को उल्फ़त ने अ़हद<ref>फैसला</ref>
यक-क़लम मंज़ूर है, जो कुछ परेशानी करे
</poem>
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