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दाग़ देहलवी

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क्या कहिये किस तरह से जवानी गुज़र गयी,
बदनाम करने आई थी बदनाम कर गयी।
 
क्या क्या रहि सहर को शब-ए-वस्ल की तलाश,
 
कहता रहा अभी तो यहीं थी किधर गयी।
 
रह्ती है कब बहार-ए-जवानी तमाम उम्र,
 
मानिन्द-ए-बू-ए-गुल इधर आयी उधर गयी।
 
नैरंग-ए-रोज़गार से बदला न रंग-ए-इश्क़,
 
अपनी हमेशा एक तरह पर गुज़र गयी।
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