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Kavita Kosh से
एक इंसान ही था वह
हमारे बीच
गुस्सा करते हुए
हर उस बात पर
जो हो आदमीयत के खिलाफखिलाफ़भाईचारे के खिलाफखिलाफ़
इंसान ही था वह
एक झील की तरह
बहता हुआ मगर
उद्दाम वेग से बहने वाली
नदी की तरह
पहचानते हुए
समय की नव्ज़ नब्ज़़ को
भरते हुए मुठ्ठी में
ज़माने की तपिश
करके गया अभिव्यक्त
नुक्कड़-नुक्कड़
खुलेपन से जो भरता था
अपनी मजबूत मज़बूत बाँहों में
हमख्याल और हर ज़रुरतमंद को
एक इंसान ही की तरह
हमारी ही तरह
हमारे आसपास
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