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और यह स्वयं एक मीठे सपने की तरह
बसा है नर्मदा की जल भरी आंखों आँखों में
बरसों से जुड़े हैं
इस शहर के हाथ
और कांप काँप रहे हैं होंठ 'नर्मदे हर'
यह
मन्दिर की चौखट पर बैठा है
झरने गीत हैं इस शहर के
जो गूंज गूँज रहे हैं
पत्थरों के उदास मन में
जिसकी पगडंडियों पर
छूटे हैं कालिदास के पांव पाँव के निशान
आज भी हैं
गुलबकावली के फूलों में
बैठें हैं कबूतर
ओ दुष्यन्त!
चुगते चावल के दाने
पीते कुण्ड का जल
यह हाथ में
कमण्डल लिए खड़ा है
किसी भी वक्तवक़्तजंगल में गुम ग़ुम होने को तैयार
बरसों से कबीर के इंतजार इंतज़ार में है
एक उदास चबूतरा
कि वे लौट आयेंगे आएँगे किसी भी वक्तवक़्त
और छील देंगे
एक उबले आलू की तरह
जब फैल जाती है रात की चादर
नींद के धुएं धुएँ में डूब जाते हैं पेड़
फूल और पहाड़
इसकी गहरी घाटियों में
नर्मदा ओ.....
नर्मदा ओ............नर्मदा ओ................
और पहाड़ों के सीने में
ढुलकते हैं
नर्मदा के आंसू.आँसू।</poem>