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जीवन का यह रूप भी, लिखा हमारे माथ।
क्षीणकाय निर्बल नदी, पडी पड़ी रेट की सेज"आँचल में जल नहीं-" इस, पीडा पीड़ा से लबरेज़।
दोपहरी बोझिल हुई, शाम हुई निष्प्राण.