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|रचनाकार=रमेश प्रजापति
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ढलते ही साँझ
घुल जाता है झील की नीली आँख में
उदासी का काला जल
ख़ाली हाथ मेले से लौटता बच्चा
रास्तेभर भरता है चुपचाप,
नन्हे हाथों से जेबों की उदासी में
खिलौने और आकाश का सूनापन
माँ की उदास आँखों में
आज भी टहलते रहते हैं पिता
कंधे पर अंगोछा डाले,
बीड़ी फूँकते और मुझे डाँटते-फटकारते
मेरी उदासी में तैरती हैं-
कालाहाँडी की प्यास,
गुजरात की ख़ौफ़नाक चीख़ें
बाज़ के आतंक से
चिड़ियों के मधुर वार्तालाप का टूटना
सिंगुर की माटी से उठी से’ज की दुर्गंध
क़र्ज़ में डूबे किसान परिवारों की आत्महत्याएँ
जो भुनायी जाती हैं अनेक ढंग से
अलग-अलग जुबानों की भट्टी पर
टूटता है जब
मन की अतल गहराई में
बहुत कुछ एक साथ,
तब झरते हैं मेरे निर्जन में उदासी के फूल।
</poem>