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<Poem>
अपनी मॉं माँ को पीठ पर लादे देहाती
अस्‍पताल में
कुछ कहता भटक रहा है
मॉं माँ जबकि उसकी कब कीमर चुकी है.है।
वह तो कब से
कारीडॉर में चल रहा है
कब से
डॉक्‍टर के दरवाजे दरवाज़े पर खड़ा है.है।
पीठ पर लदी मॉं माँ से बेखबरसिर्फ सिर्फ़ इतना चाहता हैकोई उसकी बात सुन ले.ले।
वह थक गया है
मीलों से ऐसा ही चला आ रहा है
मीलों ऐसे ही जाएगा
और फिर आएगा.आएगा।
मॉं माँ को पीठ पर लादे देहाती का चित्रअखबार अख़बार में छपता हैजिंदा मॉं ज़िंदा माँ को जब वोट के लिए लादेकैमरे के आगे मुस्‍कराता है.है।अभी तो उसे नहीं पता कि उसकी मॉंमाँ
मर चुकी है
मॉं माँ को भी नहीं पता
उसकी आत्‍मा दुःख दुख और यातना की डाइनों से घिरी
अस्‍पताल के गटर में
एक बूंद बूँद गंगा जल के लिए मुंह मुँह खोले पड़ी है.है।
मॉं माँ को पीठ पर लादे देहाती का चित्र
एक राष्‍ट्रीय चित्र होता
मगर अस्‍पताल के कारीडॉर में टंगाटँगा-टंगाटँगा
इतना दीन हो गया है कि
डॉक्‍टर की मुस्‍कान से मेल नहीं खाता.खाता।
जब सब चले जाते हैं
अस्‍पताल में भयावनी रोशनियॉंरोशनियाँ
और कराहें रह जाती हैं
देहाती का चित्र
अकेला इंतजार इंतज़ार करता है.है।</poem>
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