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मनु फिर रहे अलात-
चक्र से उस घन-तम में,
वह रक्तिम-उन्माद
नाचता कर निर्मम में।
 
 
उठ तुमुल रण-नाद,
 
भयानक हुई अवस्था,
 
बढा विपक्ष समूह
 
मौन पददलित व्यवस्था।
 
 
आहत पीछे हटे, स्तंभ से
 
टिक कर मनु ने,
 
श्वास लिया, टंकार किया
 
दुर्लक्ष्यी धनु ने।
 
 
बहते विकट अधीर
 
विषम उंचास-वात थे,
 
मरण-पर्व था, नेता
 
आकुलि औ' किलात थे।
 
 
ललकारा, "बस अब
 
इसको मत जाने देना"
 
किंतु सजग मनु पहुँच
 
गये कह "लेना लेना"।
 
 
"कायर, तुम दोनों ने ही
 
उत्पात मचाया,
 
अरे, समझकर जिनको
 
अपना था अपनाया।
 
 
तो फिर आओ देखो
 
कैसे होती है बलि,
 
रण यह यज्ञ, पुरोहित
 
ओ किलात औ' आकुलि।
 
 
और धराशायी थे
 
असुर-पुरोहित उस क्षण,
 
इड़ा अभी कहती जाती थी
 
"बस रोको रण।
 
 
भीषन जन संहार
 
आप ही तो होता है,
 
ओ पागल प्राणी तू
 
क्यों जीवन खोता है
 
 
क्यों इतना आतंक
 
ठहर जा ओ गर्वीले,
 
जीने दे सबको फिर
 
तू भी सुख से जी ले।"
 
 
किंतु सुन रहा कौण
 
धधकती वेदी ज्वाला,
 
सामूहिक-बलि का
 
निकला था पंथ निराला।
 
 
रक्तोन्मद मनु का न
 
हाथ अब भी रुकता था,
 
प्रजा-पक्ष का भी न
 
किंतु साहस झुकता था।
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