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|रचनाकार= निर्मला गर्ग
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वह औरत मिली थी मुझे
 
छोटा नागपुर जाते हुए ट्रेन में
 
गठरी लिए बैठी थी संडास के पास
 
फिर और बहुत सारी औरतें मिलीं
 
पूछती हुई
 
दर्ज़ करती हैं क्या कविताएँ
 
हमारे तसलों का ख़ालीपन
 
जानती हैं क्या
 
हमारी गठरियों में जो अनाज है
 
उसके कितने हिस्से में घुन है
 
कितने में लानत
 
उनके चेहरों पर
 
मौसम के जूतों के निशान थे
 
उनकी ज़िन्दगी का नमक
 
उड़ा था नमक की तरह
 
हाट-बाज़ार।
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