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|रचनाकार=शैलेन्द्र
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[[Category:गीत]]{{KKCatKavita}}<poem>
लीडर जी, परनाम तुम्हें हम मज़दूरों का,
 
हो न्यौता स्वीकार तुम्हें हम मज़दूरों का;
 
एक बार इन गन्दी गलियों में भी आओ,
 
घूमे दिल्ली-शिमला, घूम यहाँ भी जाओ!
 
जिस दिन आओ चिट्ठी भर लिख देना हमको
 
हम सब लेंगे घेर रेल के इस्टेशन को;
 
'इन्क़लाब' के नारों से, जय-जयकारों से--
 
ख़ूब करेंगे स्वागत फूलों से, हारों से !
 
दर्शन के हित होगी भीड़, न घबरा जाना,
 
अपने अनुगामी लोगों पर मत झुंझलाना;
 
हाँ, इस बार उतर गाड़ी से बैठ कार पर
 
चले न जाना छोड़ हमें बिरला जी के घर !
 
चलना साथ हमारे वरली की चालों में,
 
या धारवि के उन गंदे सड़ते नालों में--
 
जहाँ हमारी उन मज़दूरों की बस्ती है,
 
जिनके बल पर तुम नेता हो, यह हस्ती है !
हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में,
सुकुमारी बम्बई पली है जिस दुनिया में,
यह बम्बई, आज है जो जन-जन को प्यारी,
देसी - परदेसी के मन की राजदुलारी !
हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में,
नवयुवती बम्बई पली है जिस दुनिया में,
किन्तु, न इस दुनिया को तुम ससुराल समझना,
बन दामाद न अधिकारों के लिए उलझना ।
सुकुमारी बम्बई पली है जिस दुनिया हमसे जैसा बने, सब सत्कार करेंगे--ग़ैर करें बदनाम, न ऐसे काम करेंगे,हाँ, हो जाए भूल-चूक तो नाम न धरना,माफ़ी देना नेता, मन मैला मत करना। जैसे ही हम तुमको ले पहुँचेंगे घर में,हलचल सी मच जाएगी उस बस्ती भर में,कानाफूसी फैल जाएगी नेता आए--गांधी टोपी वाले वीर विजेता आए ।
खद्दर धारी, आज़ादी पर मरने वालेगोरों की फ़ौज़ों से सदा न डरने वालेवे नेता जो सदा जेल में ही सड़ते थेलेकिन जुल्मों के ख़िलाफ़ फिर भी लड़ते थे । वे नेता, बस जिनके एक इशारे भर से--कट कर गिर सकते थे शीश अलग हो धड़ से,जिनकी एक पुकार ख़ून से रंगती धरती,लाशों-ही-लाशों से पट जाती यह बम्बईधरती । शासन की अब बागडोर जिनके हाथों में, आज है जो जनजनता का भाग्य आज जिनके हाथों में ।कानाफूसी फैल जाएगी नेता आए-जन को प्यारी-गांधी टोपी वाले शासक नेता आए । घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी,बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी,पंजों पर हो खड़े, उठा बदन, उझक कर,लोग देखने आवेंगे धक्का-मुक्की कर । टुकुर-मुकुर ताकेंगे तुमको बच्चे सारे,शंकर, लीला, मधुकर, धोंडू, राम पगारे,जुम्मन का नाती करीम, नज्मा बुद्धन की,अस्सी बरसी गुस्सेवर बुढ़िया अच्छन की ।
देसी वे सब बच्चे पहन चीथड़े, मिट्टी साने,वे बूढ़े- परदेसी के मन की राजकुमारी !बुढ़िया, जिनके लद चुके ज़माने,और युवकगण जिनकी रग में गरम ख़ून है,रह-रह उफ़ न उबल पड़ता है, नया ख़ून है ।
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