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Kavita Kosh से
तुम को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही<br><br>
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी <br>
सब्त जिस राह पे में हों सतवतसितवत-ए-शाही के निशाँ <br>
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी <br><br>
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशीर-ए-वफ़ा <br>
तू ने सतवत सितवत के निशानों को तो देखा होता <br>मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलेवाली बहलने वाली <br>
अपने तारीक मकानों को तो देखा होता <br><br>
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है <br>
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उन के <br>
लेकिन उन के लिये तषीर तशहीर का सामान नहीं <br>क्यूँ के क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे <br>v
ये इमारात-ओ-मक़ाबिर ये फ़सीलें, ये हिसार <br>
मुतल-क़ुल्हुक्म शहनशाहों क़ुलहुक्म शहंशाहों की अज़मत के सुतूँ <br>
दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है <br>
जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ूँ <br><br>
मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी <br>
जिनकी सन्नाई ने बख़्शी है इसे शक्ल-ए-जमील <br>
उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद <br>
ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल <br>
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़ <br>
इक शहनशाह शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर <br>
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक <br><br>
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