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सृष्टि-विभव हो उठा हरा।
 
भगवती वह पावन मधु-धारा
 
देख अमृत भी ललचाये,
 
 
वही, रम्य सौंदर्य्य-शैल से
 
जिसमें जीवन धुल जाये
 
संध्या अब ले जाती मुझसे
 
ताराओं की अकथ कथा,
 
 
नींद सहज ही ले लेती थी
 
सारे श्रमकी विकल व्यथा।
 
सकल कुतूहल और कल्पना
 
उन चरणों से उलझ पडी,
 
 
कुसुम प्रसन्न हुए हँसते से
 
जीवन की वह धन्य घडी।
 
स्मिति मधुराका थी, शवासों से
 
पारिजात कानन खिलता,
 
 
गति मरंद-मथंर मलयज-सी
 
स्वर में वेणु कहाँ मिलता
 
श्वास-पवन पर चढ कर मेरे
 
दूरागत वंशी-रत्न-सी,
 
 
गूँज उठीं तुम, विश्व कुहर में
 
दिव्य-रागिनी-अभिनव-सी
 
जीवन-जलनिधि के तल से
 
जो मुक्ता थे वे निकल पडे,
 
 
जग-मंगल-संगीत तुम्हारा
 
गाते मेरे रोम खडे।
 
आशा की आलोक-किरन से
 
कुछ मानस से ले मेरे,
 
 
लघु जलधर का सृजन हुआ था
 
जिसको शशिलेखा घेरे-
 
उस पर बिजली की माला-सी
 
झूम पडी तुम प्रभा भरी,
 
 
और जलद वह रिमझिम
 
बरसा मन-वनस्थली हुई हरी
 
तुमने हँस-हँस मुझे सिखाया
 
विश्व खेल है खेल चलो,
 
 
तुमने मिलकर मुझे बताया
 
सबसे करते मेल चलो।
 
यह भी अपनी बिजली के से
 
विभ्रम से संकेत किया,
 
 
अपना मन है जिसको चाहा
 
तब इसको दे दान दिया।
 
तुम अज्रस वर्षा सुहाग की
 
और स्नेह की मधु-रजनी,
 
 
विर अतृप्ति जीवन यदि था
 
तो तुम उसमें संतोष बनी।
 
कितना है उपकार तुम्हारा
 
आशिररात मेरा प्रणय हुआ
 
 
आकितना आभारी हूँ, इतना
 
संवेदनमय हृदय हुआ।
 
 
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