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गढ़ी / अशोक तिवारी

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मेरे गाँव में एक गढ़ी है,
सालों से वीरान जो पड़ी है
गढ़ी में एक पोखर है
पोखर में कीचड़ है
कीचड़ में मलवा है
मलवे में कूड़ा है
कूड़े में खिलौने हैं
खिलौनों में आवाज़ें हैं
आवाज़ों में सिसकियाँ हैं
सिसकियों में तरंगे हैं
तरंगों में चुंबक है
चुम्बक में खिचाव है

खिंचाव से खिंचा आता है
हज़ारों कंठो का सामूहिक क्रंदन
खिचे आते हैं उनके मन
जो नहीं गए थे कहीं
दबे पड़े हैं मलबे में आज भी
बिखरा पड़ा है टूटते रिश्तों का गणित
चूल्हे की कालिमा में
बिखरी चूड़ियों की लालिमा में
देहरी के पत्थर पर पटके गए माथे के निशानों में
ओटों पर काढ़े गए कील-कांटे
चित्रकारी
लिखा सूद का हिसाब
दस्तावेज़ हैं
उनके मन की व्यथा को व्यंजित करते हुए
बुझ गए थे जो
छप्पन साल पहले
पाकिस्तान जाते माँ-बाप
और उनके बच्चों की
किलकारियों और सिसकियों के बीच !!


रचनाकाल : 24 सितम्बर, 2003
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