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समर्पण ओढे ओढ़े
किनारे पर
मैं
मुझे भीगाते रहे,
और फिर
बेपरवाह , बेफिक्र
जाते रहे …..बार- बार
मुझे
और मैं फिसलती गयी
सुनहरे समय की मुठ्ठियों से
देखो!
कैसे बिखर गया है
तुम्हारे अथाह किनारों पर