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|रचनाकार=विजय वाते
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<poem>
सबके अपने अपने दुःख हैं सबकी अपनी एक सफाई
जिसके मन के छाले फूटे वो ही समझे पीर पराई

आँखे फेर ली लहजा बदला दामन झटका भाग लिए
यारों खुद से खुद लड़ना है अपने खातिर आप लड़ाई

पथरीली धरती भी अपनी सपनीला आकाश भी अपना
जख्म भी अपने मरहम अपना खुद की खुद के पास दवाई

बाजू अपने गर्दन अपनी मुद्दे अपने कूवत अपनी
गीत भी अपने दर्द भी अपना भीड़ भरी अपनी तनहाई

बढ़ा शिखर पर मारी ठोकर पायदान को तोड़ दिया
जीवन की शतरंज में उसने कभी आज तक मात न खाई

खत्म करो ये किस्सा गोई, ये लफ्फाजी बंद करो
किसने चैन दिनों का खोया किसने अपनी नींद गवाई
</poem>