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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन डंगवाल
|संग्रह=स्याही ताल / वीरेन डंगवाल
}}
       <poem>
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
 
कुछ रास्तों को गुलज़ार किया
 
कुछ कविता-टविता लिख दीं तो
 
हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया
 
अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ
 
हाँ जीं हाँ वही कनफटा हूँ, हेठा हूँ
 टेलीफोन टेलीफ़ोन की बगल बग़ल में लेटा हूँ 
रोता हूँ धोता हूँ रोता-रोता धोता हूँ
तुम्हारे कपड़ों से ख़ून के निशाँ धोता हूँ
तुम्हारे कपडों से ख़ून के निशाँ धोता हूँ  जो न होना था वही सब हुवां हुवांहुवाँ-हुवाँ
अलबत्ता उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
 
हरदोई मे जीन्स पहनी बेटी को देख
 
प्रमुदित हुई कमला बुआ
 
तब रमीज़ कुरैशी का हाल ये था
 कि बम फोडा फोड़ा जेल गया 
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
 
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
 
चाय की दुकान खोली
 
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
 
बिलाया जाने कहॉ
 
उसके कई साथी इन दिनों टीवी पर चमकते हैं
 
मगर दिल हमारे उसी के लिए सुलगते हैं
 
हाँ जीं कामरेड कज्जी मज़े में हैं
 
पहनने लगे है इधर अच्छी काट के कपडे
 
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
 
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
 
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदहारण
 
उनकी ही भाषा में :
 
" रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाकी
 
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमे साकी "
 
"मजे का बखत है तो इसमे हैरानी क्या है
 
हमें भी कल्लैन दो मज्जा परेसानी क्या है "
 
अनिद्रा की रेत पर तड़ पड़ तड़पती रात
 
रह गई है रह गई है अभी कहने से
 
सबसे ज़रूरी बात।
</poem>
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