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पंख की आवाज़ / रमेश कौशिक

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<poem>'''पंख की आवाज़'''
इन बुढ़बस शर्तों के अधीन
आ रहा होगा
उसके घर में
घुस जाएगा।आजकल सही बात कहने परलोग रोते हैंवैसे रोनाकोई बुरी बात नहींऔर न हँसना हीकिन्तुबीच की स्थितिबड़ी दयनीय हैन जाने क्यों तथागत पढ़ाते रहेजीवन भर मध्य मार्गऔर आनंद करते रहे हूँ-हाँउन्हें बीच में क्यों नहीं टोकाकिन्तु ढाई हज़ार साल पहले की या आगे की बातें करनाभूत का कुरताया भविष्य का पाजामाआज दोनों ही व्यर्थ हैं। समय सापेक्ष है अर्थभूचाल पहले भी आते थेमकान गिरते लोग मरते थेशासन के लिएयह महज़एक खबर होती थीअभी पिछले दिनोंपेरू में आया भूचालऔर उसके तुरंत बादसेना ने सत्तासँभाल लीशासन-कोश में एक नया अर्थजुड़ गयाभटकते रहिएनए अर्थ की खोज में। फूलऔरत के जूड़े में नहींतो आदमी की दाढ़ी मेंमिल जाएँगेगोलियाँबंदूक में नहींतो बच्चों की खोपड़ी में होंगी। इतिहास का घावअश्वत्थामा का घाव हैलेसर किरणों सेदूरियाँ कम नहीं हुईअंतहीन प्रभातों मेंप्रार्थनाओं को उठे हाथ हीआकाश को घायल करते रहें हैंअँधेरे की भाषा पढ़ी नहीं जातीजब वह हँसता हैनीरवता दर्पण-सीचटक जाती हैउड़ने वाली मछलियों के फ़व्वारेबंद हो जाते हैं। वे कितने अच्छे हैंजो तट बन कर जीते हैंअतलांत निस्सीम सागर केहाहाकार सेजिनके कानों के परदे नहीं फटते हैं।</poem>
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