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Kavita Kosh से
कंकरीट के वन
उदास मन !
थके अनमने से
बैठे सहमे।
परम्पराओं को कभी
बचोगे तभी।
रोयेगी मानवता
हँसगे गिद्ध।
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा।
राम और ईसा को
भिन्न हैं कहाँ !
घूम रही है चक्की
पिसेंगे सब।
रौंदे तो जाआगे ही
रोना धोना क्यों?
चूमकर सो गए
गाँव के गाँव।
झेलेगा कब तक
तम के दंश।
क्रोधित धरा।
मुढ़ैठा बाँधे
अकड़ा खड़ा चना
माटी का बेटा।