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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रदीप जिलवाने
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
(चित्रकार मनजीत बावा को समर्पित)
एक मौन है ठेठ भदेसी
अंतहीन लकीरों में लिपटा
एक कुण्ठा की छाप है
शैवाल की तरह फैलती हुई
बढ़ती हुई.
एक लुटी हुई तरलता है
खाली और सपाट चेहरों पर
आत्मदया की हद तक बिखरी हुई
लम्पट और विदु्रप रिवाजों,
व्यवस्था के खासमखास लठैतों
और नकाबपोश दुःखों के बोझ तले दबी.
एक अ-चेहरा आदमी है
अंतिम छोर पर खड़ा
अपनी अनंतिम पीड़ा का हथोड़ा लिये
एक ब-चेहरा आदमी है
लगभग बौखलाया हुआ
बदहवाशी में इधर-उधर भागता हुआ.
कुछ बिखरी हुई उम्मीदें हैं
कुछ टूटे हुए भरोसे हैं
कुछ कमजोर आश्वस्तियाँ भी हैं समय की.
और भी बहुत कुछ है
लकीरों के इस तरफ
लकीरों के उस तरफ
लकीरों में सलीके से गुत्थमगुत्था
रचते हुए
एक प्रति-संसार.
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|रचनाकार=प्रदीप जिलवाने
|संग्रह=
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(चित्रकार मनजीत बावा को समर्पित)
एक मौन है ठेठ भदेसी
अंतहीन लकीरों में लिपटा
एक कुण्ठा की छाप है
शैवाल की तरह फैलती हुई
बढ़ती हुई.
एक लुटी हुई तरलता है
खाली और सपाट चेहरों पर
आत्मदया की हद तक बिखरी हुई
लम्पट और विदु्रप रिवाजों,
व्यवस्था के खासमखास लठैतों
और नकाबपोश दुःखों के बोझ तले दबी.
एक अ-चेहरा आदमी है
अंतिम छोर पर खड़ा
अपनी अनंतिम पीड़ा का हथोड़ा लिये
एक ब-चेहरा आदमी है
लगभग बौखलाया हुआ
बदहवाशी में इधर-उधर भागता हुआ.
कुछ बिखरी हुई उम्मीदें हैं
कुछ टूटे हुए भरोसे हैं
कुछ कमजोर आश्वस्तियाँ भी हैं समय की.
और भी बहुत कुछ है
लकीरों के इस तरफ
लकीरों के उस तरफ
लकीरों में सलीके से गुत्थमगुत्था
रचते हुए
एक प्रति-संसार.
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