भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार रवींद्र
}}
चलती हैं, बदलाव नहीं लातीं।
अंधे गलियारों में फिरतीं
खूब गूंजती गूँजती हैं,
किसी अपाहिज हुए देव को
वहीं पूजती हैं,
पगडंडी पर
राजमहल के मंत्र बावरे अब भी ये गातीं।
फ़र्क नहीं पड़ता है कोई
इनके आने से,
बाज़ नहीं आते राजा
झुनझुना बजाने से,
नाजुक कलियांकलियाँ
महलसरा में हैं कुचली जातीं।
जंगली और हवाओं का
रिश्ता भी टूट चुका,
झंडा पुरखों के देवालय का है
रात फुंका,
राख उसी की
बस्ती भर में अब ये बरसातीं।
</poem>