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{{KKRachna
|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
}}
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<poem>
देवालय के
भग्न,शिखर-कंगूरों से
लिपटी हुई है धूप
मानो माथे के बीचो-बीच
झूलता हो झूमर
सागर की उन्मत्त लहरों से घिरा मैं
जिस मोड़ पर हूँ वहाँ से
एक कसक भरा आलाप
शिखर और सागर के बीच
बेआवाज़ ठिठका है
ढलता हुआ सूर्य समुद्र की कोख में गिरे
इस से पहले अपने होठों से लगाकर
मुझे षड्ज बन जाने दो
<poem>
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|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
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देवालय के
भग्न,शिखर-कंगूरों से
लिपटी हुई है धूप
मानो माथे के बीचो-बीच
झूलता हो झूमर
सागर की उन्मत्त लहरों से घिरा मैं
जिस मोड़ पर हूँ वहाँ से
एक कसक भरा आलाप
शिखर और सागर के बीच
बेआवाज़ ठिठका है
ढलता हुआ सूर्य समुद्र की कोख में गिरे
इस से पहले अपने होठों से लगाकर
मुझे षड्ज बन जाने दो
<poem>