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नए वृन्त पर / गोबिन्द प्रसाद

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मुझे अच्छा नहीं लगेगा
कि तुम मुझे याद करो
मैं रेत हूँ अपने ही तन का
और मन का क्या
वह तो रौशनी के
अणु में ढल
अभी वह आईना बन रहा है
जिसमें ज़माने का दर्द
हज़ार हज़ार बाँहों वाला पौरूष
और सदियों से बहती नदियों की सिसकी
सागर की उमड़न बन
सब खिलखिलाएंगे एक दिन
आकाश के वृन्त पर
जो धरती को बड़ी हसरत से तकता है
 
मुझे अच्छा नहीं लगेगा
कि तुम मुझे याद करो
 
स्मृति की मोहिनी लता बन लिपटती है
वह देह की नदी में भँवर बन के रहती है
जो अचंचल लहरों के स्वर में प्रलय मचाती है
 
मुझे अच्छा लगेगा
कि हर बार एक नए मोड़ पर मिलें
अजनबी अरूप की तरह
नये-नये वृन्त पर खिलें
साथ-साथ अलग-अलग पराग लिए
भटकते हुए अगर कहीं मिलें
तो सीने में आग लिए
पुलक पड़ें
शब्द से परे
स्वर के समुद्र में
नाद के उत्खनन में
शिरा-शिरा में सृजन-संस्कार लिए
 
मुझे अच्छा लगेगा
कि हर बार एक नए मोड़ पर मिलें
लेकिन सीने में आग लिए
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