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Kavita Kosh से
दूर कहीं सजदों में झुकी घंटियों की गूँज
बाँसुरी की धुन में लिपट कर चोटियों से
धीमे—धीमे उतरती सुबह की सुरीली धूप!
पानी में डुबकियाँ लगाती कुछ मचलती किरणें
ज़िन्दगी की चलती नौका
रात की झिलमिलाहटों में तैरती चुप्पियों की लहरें
किनारों से टकराकर लौटती जुगनुओं की वही पुरानी चमक!
उम्मीदों की ठण्डी सड़क पर हवाओं से बातें करती
झील की गहराई में उतरकर
नींद को थपथपाते हुए
उगती सुबह की अंगड़ाई में रम गए हैं!
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