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''' भगवान का उद्व्रजन '''
वे भगवान थे...
हां, भगवान ही तो थे
ऊब गए थे
नगर-वासियों से,
छिपने लगे थे
घटा-छेदक पेड़ों की शाखाओं पर
क्यों ऊबने लगे थे
अपने अन्धभक्तों से वे
जो उनके दर्शन-सुख के लिए
अनुप्रस्थ भेद देते रहे हैं
नदी-नाले, पर्वत-पठारऔर उत्तुंग शिखर,बावले होउनके भजन-कीर्तन गातेबुढापा, बीमारी और दैहिक तापों पर होकर सवारचल पड़ते हैं हजारों मेल--दुर्भेद्य उत्तल-अवतल मार्गों पर सिसकारियों को मुंह में दबोचेऔर टींसते घुटनों में इच्छाशक्ति की करेन्ट का झटका देकर आखिर, क्यों भगवानत्रास देने लगा दूर जाकार,अपनी भाविताव्यता-संभाव्यता से छल-प्रपंच कर्के,अपनी दिव्यता की चकाचौंध से आमन्त्रित करने लगा उसे आह!इतनी! इतनी!! दूर से खेलता है भगवान हमसे!!!धकेल देता है--पहाड़ों के नीचे जमीन खिसकाकर पैरों तले से--भू-स्खलन भूस्खलन खेलकर, या, कर देता है-- बादल-विस्फोट हम पर, दौड़ा देता है--तूफानों के खौफनाक घोड़े,सत्संगी पंडालों को अग्निवेदी बनाकर,भर लेता है अपना पेटमानावाहुति से--दिर्घायु के कामनार्थियों को अल्पायु के शूलों वाले खड्ड में अकस्मात् धकेलकर उसकी ध्वंस-क्रीड़ा से कौन रोक सकेगा उसे? वह शून्य से शून्य तक यानी, अनन्त, अज्ञेय काल तक लुढकाता रहेगा उल्काएं हमारी ओर,फिर भी, हम प्रार्थना करते रहेंगेउसमें शत-प्रतिशत ध्वंसात्मक ईश्वरत्त्व से,एक सच्चे झूठ से सत्य होने का गुहार-मनुहार करते रहेंगे--पूरी श्रद्धा और कर्मकांडों से.