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परिंदा / लीलाधर मंडलोई

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<poem>

रहता हुआ हवाओं में
सांस लेता है दरियाओं में
पानी के बगैर वह जी नहीं सकता
डोलता है मौजों पे
मछलियों से इश्‍क करता है

पकड़ के साथ अपने ले जाता उन्‍हें
आसमां में बादलों से गुफ्तगू कराने
वो मिलता है उगते सूरज से
और किरनों में चमकता है

सुर्ख नीले रंगों वाला
वो आबी परिंदा
मोहब्‍बत करता है दरियाओं से
उसकी दरबानी करता है
वो एक फलसफे में है
खुदा उसे महफूज रखे
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