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गांव / मनोज श्रीवास्तव

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''' गांव '''

गांव जहां भी है
वह ताजे फूलों की सेज है
मां का दुलार है
बहन की राखी है
प्रेमिका का चुम्बन है
बेटी की सेवा है

गांव अबोध बिटिया है
मां की गोद में उसकी जम्हाई है
उसके होठों पर पहली खिलखिलाहट है
उसकी आँखों का भोलापन है
उसके मन-उपवन में
लहलहाते सपनों की फसल है
उसकी तेज का उनीदापन है

गाम्व सुदूर मंदिर में बजते
घण्टे-घड़ियाल की निनाद है
मस्जिद की अजान-लहरियाँ है
घटाटोप आसमान से चिड़ियों का
विहंगावलोकन है
ताल-तलैयों में दुबकी लगाते
हंसों की कलरव किलकारियाँ है
लुप्तप्राय पनघटों पर
पनिहारिनों की जलक्रीड़ा है

गांव नींदों में प्रवासित परीलोक है
सुगन्धित परीकथा है
बदलाव के बयार से मुक्त
पौराणिक गाथा है
वैज्ञानिक वज्राघात से निरापद
मलय-समीर की खेती है
सितारों की सभा है
गुड़िए की बारात है
चौपाल में हुक्कों की गुड़गुड़ाहट है
पगुराती गायों की रम्हाई है
ठण्ड में कुहासों पर सवार किरण है
ग्रीष्म के माथे पर ओस का तिलक है
भोर की कलाई में खनकती चूड़ियाँ है

गांव जहां भी है
एक सुखद अनुभूति है
एक अन्तहीन जिजीविषा है
मृत्यु से पल भर पहले की
एक और सांस की कामना है
घुटनभरे इतिहास के अंधकूप में
एक सुवासित घटना का वातायन है.