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बर्र / लीलाधर मंडलोई

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<poem>

पहले-पहल मैंने उन्‍हें
अपने गांव की मिठाई दुकान पर देखा
वे खुली मिठाइयों पर बैठी थीं
और भनभना रही थीं आत्‍मरक्षा में

उन्‍हें छेड़ने का साहस कम ही होता
और कभी भूले-भटके छेड़ दे कोई
तो बच नहीं सकते उनके आक्रमण से
शायद इसलिए बर्र के छत्‍ते में
हाथ डालने की कहावत मशहूर हुई

किसी एक को छेड़ना
सैकड़ों को दुश्‍मन बनाना है
कि इतनी गजब की एकता
जो मनुष्‍य में सिरे से नदारद

अपने शरीर पर उनके डंकों की चुभन
आज भी ऐसे जीवित
और छूट गए कुछेक डंक
जो कभी निकले नहीं
अनेक जतन के बाद

उन्‍हें जमीन खोदते देखा मैंने
पत्‍थरों में भी बना लेते हैं सुरंग सी
कि कितने कुशल और परिश्रमी
लकडियों में छेद करना तो आम बात
उनमें शोषित की उग्रता है

रंग शहद सा पीला अधिक
और काला धुस्‍स जो
फैला है जगह-जगह
मानो वह उनके क्रोध का प्रतीक

लेकिन अपनी संतानों के लिए
उनका प्रेम भी असीम
क्‍या वे आक्रमण करते हैं
अपने बच्‍चों की जीवन रक्षा में ?

उनसे भय और अलक्षित घृणा की वजह से
कितना कम जानते हैं हम
कि उन तक जाने का खयाल भी
निरस्‍त रहता है जीवन भर
उनके नीड़ तक मैं गया डरता-डराता
एकदम शांत और गम्‍भीर
मैंने देखा और रहा संग-साथ कई बार

मैंने देखा उनका वह प्रेम
जो अपने बच्‍चों के लिए था
जिसमें वे डूबे थे
उनके ध्‍यान को भंग किए बगैर
मैंने उन्‍हें दूर से प्रेम किया

दूर से किया गया वह प्रेम
कितना पास है आज

मैं दूर गए अपने बेटे के
जितना पास हूं उतना ही बना रहूं
यदि उनके भी साथ तो

मुझे अपने मनुष्‍य होने में
शायद इतना सन्‍देह न हो
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