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<br>हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
<br>गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥४॥
<br>तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥आवा॥५॥
<br>दो०-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
<br>बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥१८७॥
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<br>चौ०-नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
<br>मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥बिश्रामा॥१॥
<br>सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
<br>बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥सरिताऽमृतधारा॥२॥
<br>सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
<br>गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥बरूथा॥३॥
<br>बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
<br>अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥सेवा॥४॥
<br>दो०-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
<br>जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥१९१॥
<br>हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
<br>लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
<br>भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥खरारी॥१॥
<br>कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
<br>माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
<br>करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
<br>सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥श्रीकंता॥२॥
<br>ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
<br>मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
<br>उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।<br>कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥लहै॥३॥
<br>माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
<br>कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
<br>सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
<br>यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥भवकूपा॥४॥
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<br>दो०-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
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<br>चौ०-सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
<br>हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥पुरबासी॥१॥
<br>दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥
<br>परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा॥धीरा॥२॥
<br>जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
<br>परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥बाजा॥३॥
<br>गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
<br>अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥सिराई॥४॥
<br>दो०-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
<br>हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥१९३॥
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<br>चौ०-ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
<br>सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥लोई॥१॥<br>बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं। सहज संगार सिंगार किएँ उठि धाईं॥<br>कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥दुआरा॥२॥
<br>करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
<br>मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥रघुनायक॥३॥
<br>सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
<br>मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥बीचा॥४॥
<br>दो०-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
<br>हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥१९४॥
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<br>चौ०-कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
<br>वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥अहिराजा॥१॥
<br>अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
<br>देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥अनुमानी॥२॥
<br>अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी॥
<br>मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥उदारा॥३॥
<br>भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
<br>कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥जाना॥४॥
<br>दो०-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
<br>रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥१९५॥
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<br>चौ०-यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना॥
<br>देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥भागा॥१॥
<br>औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
<br>काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥कोऊ॥२॥
<br>परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
<br>यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥होई॥३॥
<br>तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
<br>गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥चीरा॥४॥
<br>दो०-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस।
<br>सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥१९६॥
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<br>चौ०-कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
<br>नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥ग्यानी॥१॥
<br>करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
<br>इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥अनुरूपा॥२॥
<br>जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
<br>सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥बिश्रामा॥३॥
<br>बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
<br>जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥प्रकासा॥४॥
<br>दो०-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
<br>गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥१९७॥
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<br>चौ०-धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
<br>मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥माना॥१॥
<br>बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
<br>भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥बड़ाई॥२॥
<br>स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
<br>चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥रामा॥३॥
<br>हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
<br>कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥ललना॥४॥
<br>दो०-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
<br>सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥१९८॥
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<br>चौ०-काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
<br>अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥मोती॥१॥
<br>रेख कुलिस ध्वज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
<br>कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥देखा॥२॥
<br>भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
<br>उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥लोभा॥३॥
<br>कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
<br>दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥पारे॥४॥
<br>सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
<br>चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥सँवारे॥५॥
<br>पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
<br>रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥देखा॥६॥
<br>दो०-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।
<br>दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥१९९॥
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<br>चौ०-एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
<br>जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥भवानी॥१॥
<br>रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
<br>जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥भाखे॥२॥
<br>भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
<br>मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥रघुराई॥३॥
<br>एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
<br>लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै॥झुलावै॥४॥
<br>दो०-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
<br>सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥२००॥
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