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चौ०-भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
<br>डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥जैसें॥१॥
<br>सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
<br>कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥हारी॥२॥
<br>श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
<br>नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥साने॥३॥
<br>दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥
<br>देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥रनधीरा॥४॥
<br>दो०-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
<br>पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥२५१॥
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<br>चौ०-कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
<br>रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥छड़ाई॥१॥
<br>अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
<br>तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥बिबाहू॥२॥
<br>सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
<br>जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥हँसाई॥३॥
<br>जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥
<br>माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥रिसौंहें॥४॥
<br>दो०-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
<br>नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥२५२॥
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<br>चौ०-रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
<br>कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥जानी॥१॥
<br>सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
<br>जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥उठावौं॥२॥
<br>काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
<br>तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥पुराना॥३॥
<br>नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
<br>कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥धावौं॥४॥
<br>दो०-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
<br>जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥२५३॥
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<br>चौ०-लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
<br>सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥सकुचाने॥१॥
<br>गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
<br>सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥बैठारे॥२॥
<br>बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
<br>उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥परितापा॥३॥
<br>सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
<br>ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥लजाएँ॥४॥
<br>दो०-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
<br>बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥२५४॥
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<br>चौ०-नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
<br>मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥लुकाने॥१॥
<br>भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
<br>गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥मागा॥२॥
<br>सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
<br>चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥सुखारी॥३॥
<br>बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
<br>तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं॥गोसाईं॥४॥
<br>दो०-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
<br>सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥२५५॥
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<br>चौ०-सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
<br>कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥नाहीं॥१॥
<br>रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
<br>सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥लेहीं॥२॥
<br>भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
<br>बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥रानी॥३॥
<br>कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
<br>रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥भागा॥४॥
<br>दो०-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
<br>महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥२५६॥
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<br>चौ०-काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥
<br>देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष राम सुनु रानी॥रानी॥१॥
<br>सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
<br>तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥तेही॥२॥
<br>मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
<br>करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥गरुआई॥३॥
<br>गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
<br>बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥थोरी॥४॥
<br>दो०-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर॥
<br>भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥२५७॥
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<br>चौ०-नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
<br>अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥हानी॥१॥
<br>सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
<br>कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥किसोरा॥२॥
<br>बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
<br>सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥तोरी॥३॥
<br>निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
<br>अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥जाहीं॥४॥
<br>दो०-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
<br>खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥२५८॥
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<br>चौ०-गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
<br>लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥सोना॥१॥
<br>सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥
<br>तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥राचा॥२॥
<br>तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
<br>जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥संदेहू॥३॥
<br>प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
<br>सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥जैसें॥४॥
<br>दो०-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
<br>पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥२५९॥
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<br>चौ०-दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
<br>रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥मोरा॥१॥
<br>चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
<br>सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥अभिमानू॥२॥
<br>भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
<br>सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥दावा॥३॥
<br>संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई॥
<br>राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू॥कड़हारू॥४॥
<br>दो०-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
<br>चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥२६०॥
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