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<br>देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
<br>नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा॥दीन्हा॥१॥
<br>जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
<br>छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥घनेरी॥२॥
<br>हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
<br>राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥तोहारा॥३॥
<br>देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
<br>सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥हमारे॥४॥
<br>दो०-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
<br>बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥२८२॥
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<br>निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
<br>चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु॥कृसानु॥१॥
<br>समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
<br>मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥कीन्हे॥२॥
<br>मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
<br>भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥ठाढ़ा॥३॥
<br>राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
<br>छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना॥अभिमाना॥४॥
<br>दो०-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
<br>तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥२८३॥
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<br>देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
<br>जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥होऊ॥१॥
<br>छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥
<br>कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥रघुबंसी॥२॥
<br>बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
<br>सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥के॥३॥
<br>राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
<br>देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥भयऊ॥४॥
<br>दो०-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
<br>जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥२८४॥
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<br>जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥
<br>जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥हारी॥१॥
<br>बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
<br>सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥अनंगा॥२॥
<br>करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
<br>अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता॥भ्राता॥३॥
<br>कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
<br>अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥पराने॥४॥
<br>दो०-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
<br>हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥२८५॥
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<br>अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
<br>जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी॥कोकिलबयनी॥१॥
<br>सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
<br>गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥चकोरकुमारी॥२॥
<br>जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
<br>मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई॥गोसाई॥३॥
<br>कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
<br>टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु॥काहु॥४॥
<br>दो०-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
<br>बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥२८६॥
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<br>दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥
<br>मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥काला॥१॥
<br>बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
<br>हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥पासा॥२॥
<br>हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥
<br>रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥पाई॥३॥
<br>पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥
<br>बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥खंभा॥४॥
<br>दो०-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
<br>रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥२८७॥
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<br>बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥
<br>कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई॥सुहाई॥१॥
<br>तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए॥
<br>मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥सरोजा॥२॥
<br>किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥
<br>सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी॥ठाढ़ी॥३॥<br>चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥सुहाई॥४॥
<br>दो०-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥
<br>हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥२८८॥
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<br>रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥
<br>मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥सुहाए॥१॥
<br>दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
<br>जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥केही॥२॥
<br>दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर॥
<br>जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥तैसी॥३॥
<br>जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
<br>जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥मोहा॥४॥
<br>दो०-बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु॥
<br>तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥२८९॥
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<br>पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
<br>भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥बोलाई॥१॥
<br>करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
<br>बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती॥छाती॥२॥
<br>रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
<br>पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥साँची॥३॥
<br>खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥
<br>पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥आई॥४॥
<br>दो०-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
<br>सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥२९०॥
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