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झाड़ूमार औरतें / मुकेश मानस

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<poem>

मेरे सामने से चली आ रही थीं
दो झाडूमार औरतें
सभ्य लोगों का गंद बुहारकर
अपने घरों को लौटती हुईं
अपने झाडुओं की तरह
थकान से भरी थी उनकी देह
मगर वो खिलखिला रही थीं

मैं उनके नज़दीक से ग़ुज़रा
अचानक उनमें से एक ने
झाडू को कंधे पर उठाया
और बोली
“ये झाडू नहीं, झंडे हैं हमारे”

एक पल को मैं रुका
देखा उन्हें गौर से
सचमुच उनके कंधों पर
लहलहा रहे थे झंडे
मुक्ति का आह्वान लिये
2000


<poem>
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