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शहर में धूल / मुकेश मानस

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<poem>

घर से निकला था सुबह-सुबह
ताज़ी हवा खाने
और हवा भरी हुई थी
धूल से

कहाँ से आती है
इस शहर में इतनी धूल?
जैसे ही मैंने सोचा
धूल से भर गई मेरी आँखें

कंक्रीट का जंगल है ये शहर
मैं जिसमें रहता हूँ
हर तरफ़ पत्थर, कंक्रीट और कोलतार
मैं इन्हीं के बीच जीता हूँ

बंद ही रहते हैं खिड़कियाँ और दरवाज़े
खड़ी की जा चुकी हैं
ऊँची-ऊँची दीवारें
फिर भी सब कुछ लाँघती हुई
जाने कहाँ से
आ जाती है धूल

तमाम घर और दुकानें
बाज़ार और संस्थान
सरकारी दफ्तर और उनकी फ़ाईलें
अमरीका तक जुड़े कम्प्यूटर भी
अटे पड़े हैं सब के सब
धूल से

कहाँ से आती है ये धूल
पत्थरों के इस शहर में?
2001



<poem>
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