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रचनाकारः [[{{KKRachna|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध]][[Category:कविताएँ]][[Category:गजानन माधव मुक्तिबोध]]}}
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ शहर के उस ओर खँडहर खंडहर की तरफ़<br>
परित्यक्त सूनी बावड़ी<br>
के भीतरी<br>
ठण्डे अँधेरे अंधेरे में<br>
बसी गहराइयाँ जल की...<br>
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों<br>
दिल में एक खटके सी लगी रहती।<br><br>
बावड़ी की इन मुँडेरों मुंडेरों पर<br>
मनोहर हरी कुहनी टेक<br>
बैठी है टगर<br>
मेरी वह कन्हेर...<br>
वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर<br>
अँधियारा अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का<br>
शून्य अम्बर ताकता है।<br><br>
झुककर नमस्ते कर दिया।<br><br>
पथ भूलकर जब चाँदनी चांदनी <br>
की किरन टकराये<br>
कहीं दीवार पर,<br>
तब ब्रह्मराक्षस समझता है<br>
वन्दना की चाँदनी चांदनी ने<br>
ज्ञान गुरू माना उसे।<br>
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ<br><br>
बावड़ी की इन मँडेरों मुंडेरों पर<br>
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं<br>
टगर के पुष्प-तारे श्वेत<br>
खूब ऊँचा एक जीना साँवला<br>
:::उसकी अँधेरी सीढ़ीयाँअंधेरी सीढ़ियाँ...<br>
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।<br>
एक चढ़ना औ' उतरना,<br>
प्रवाहित कर दीवारों पर,<br>
उदित होता चन्द्र<br>
व्रण पर बाँध बांध देता<br>श्वेत-धौली पट्टियांपट्टियाँ<br>
उद्विग्न भालों पर<br>
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए<br>
एक शोधक की।<br><br>
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद -सा,<br>
प्रासाद में जीना<br>
व जीने की अकेली सीढ़ीयाँसीढ़ियाँ<br>
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।<br>
वे भाव-संगत तर्क-संगत<br>
पहुँचा सकूँ।<br><br>
''(कविता संग्रह, "चाँद चांद का मुँह टेढ़ा है" से)''
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