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|रचनाकार=इंशा अल्लाह खां
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'''1.'''
सज गर्म, जबीं गर्म, निगह गर्म, अदा गर्म ।
वोह सरसे है ता नाख़ुने पा, नामे ख़ुदा गर्म ।।
'''2.'''
परतओसे चाँदनी के है सहने बाग ठंडा ।
फूलों की सेज पर आ, करदे चिराग़ ठंडा ।।
'''3.'''
लेके मैं ओढ़ूँ, बिछाऊँ, लपेटूँ क्या करूँ ?
रूखी, फीकी, सूखी, साखी महरबानी आपकी ।।
'''4.'''
ख़याल कीजिए क्या आज काम मैंने किया ।
जब उनने दी मुझे गाली, सलाम मैंने किया ।।
'''5.'''
कोई दुनिया से क्या भला माँगे ।
वह तो बेचारी आप न्ण्गी है ।।
'''6.'''
गर यार मय पिलाए तो फिर क्यों न पीजिए ।
ज़ाहिद नहीं, मैं शेख नहीं, कुछ वली नहीं ।।
'''7.'''
अजीब लुत्फ़ कुछ आपस की छेड़ छाड़ में है ।
कहाँ मिलाप में वह बात जो बिगाड़ में है ।।
'''8.'''
झिड़की सही, अदा सही, चीनेजबीं<ref>माथे की त्यौरी</ref> सही ।
यह सब सही, पर एक 'नहीं' की नहीं नहीं ।।
'''9.'''
गर 'नाज़नीं' कहने से बुरा मानते हो आप ।
मेरी तरफ़ तो देखिए, मैं नाज़नीं सही ।।
'''10.'''
जिगर की आग बुझे जिससे जल्द वो शय<ref>चीज़</ref> ला ।
लगा के बर्फ़ में साक़ी ! सुराहिए मय ला ।।
'''11.'''
नज़ाकत उस गुलेराना की देखिए 'इंशा' !
नसीमे सुबह जो छू जाए रंग हो जाए मैला ।।
'''12.'''
है ज़ोरे हुस्न से वोह निहायत घमंड पर ।
नामे ख़ुदा निगाह पड़े क्यों न डंड पर ।।
'''13.'''
यह जो महन्त बैठे हैं राधा के कुंड पर ।
औतार बन के गिरते हैं परियों के झुंड पर ।।
'''14.'''
ग़ुस्से में हमने तेरा बड़ा लुत्फ़ उठाया ।
अब तो अमूमन<ref>प्रायः</ref> और भी तक़सीर<ref>बेअदबी, अपराध</ref> करेंगे ।।
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