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जनमत / ओम पुरोहित ‘कागद’

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<Poem
मेरे देश का
साठ प्रतिशत जनमत
एकमत हो
हर बार
एक के विरुद्ध
मतदान करता है
मगर फिर भी
परिवर्तन नही होता।

जनमत किसे कहते हैं
इस पर
वह
साल भर सोचता है
कि, कुछ बातों का अर्थ
यूं अनायास ही
क्यूं बदल जाता है ?

हर बार
वही लकड़ी
वही कुल्हाड़ा
हारता रहता है
मगर
मुड़दी सी लकड़ी
तनी रहती है
न जाने
कुल्हाड़े की धार को
हर बार
क्या हो जाता है ?

मौसम बहुत कहता है
ऎसा मत जन
जो करना पड़े दान
और बिगड़ती रहे
मत और दान की शान
मगर
हवाएं मौन को ही
समझ बैठी है शान !
</poem>
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